प्रेमचन्द का गाँधीवादी दृष्टिकोण


 


आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी, प्रगतिशील संघ के संस्थापक, मानवतावादी लेखक, दलितों, दमितों, शोषितों, किसानों तथा अपेक्षित वर्ग की आवाज, रूढ़ियों, कुरीतियों, तथा सामाजिक विषमताओं का खण्डन करने वाले, स्वदेशी और असहयोग आन्दोलन के समर्थक मुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1880 में (लमहीं वाराणसी) उत्तर प्रदेश में हुआ था। यह लमहीं की पवित्र धरती आज किसी भी परिचय की मोहताज नहीं है; क्योंकि इसने प्रेमचन्द जैसे महान साहित्यकार को पैदा किया जो हिन्दी साहित्य में ध्रुव तारा की भॉति युग-युगान्त तक अमर रहेगा । 
प्रेमचन्द जी पूर्णतः गाँधीवादी विचारधारा के पुजारी थे। गाँधी ने दो बातें कहीं थी पहली कि गाँवों को शहरों पर निर्भर न होने दें इससे उनकी वास्तविक सृजनशीलता पर प्रभाव पड़ेगा। 
दूसरी ये कि – गाँधी ने 'स्वदेशी' की बात की। स्वदेशी आन्दोलन से अंग्रेजो की रीढ़ टूटने लगी। इसीलिए तो 1921 का स्वदेशी आन्दोलन हुआ जिसमें अंग्रेजी (विदेशी) वस्तुओं और वस्त्रों की होली जलायी गयी। प्रेमचन्द इस आस्था के साथ थे। प्रेमचन्द नहीं चाहते थे कि कोई ऐसी सभ्यता आए जो मनुष्य को यन्त्र समझे। अपितु 'मनुष्य को मनुष्य' समझे। प्रेमचन्द मनुष्य की आजादी के पक्षधर थे। मानवतावादी दृष्टिकोण के पुजारी थे। उनका मानना था कि सभी वर्ग हर स्तर पर स्वतंत्र हो। आजादी कई तरह की होती है । यदि हम किसी को प्रारम्भ से ही गुलाम बना दें 'चेतना के स्तर पर तो वह जीवन में किसी भी उच्च पद पर ही क्यों न हो गुलाम ही रहेगा, क्योंकि आजाद होने का लक्षण है कि मनुष्य अपने जीवन को अपने तर्कों के आधार पर समझे और उसे जीने की कोशिश करें, इसलिए प्रेमचन्द की यही दृष्टि थी। इसे ही 'मानवतावादी दृष्टि' कहते हैं। यही कारण है कि प्रेमचन्द गाँधी के विचारों के समर्थक थे। गाँधी हमारे समय के 'राम' थे। हो सकता है कि कुछ लोगों को यह बात सुनकर आश्चर्य हो ! राम ने अपने समय में जितना "किया" गाँधी ने उन से ज्यादा किया। राम ने अपनी परिस्थितियों में जो कुछ सोचा किया गाँधी ने अपनी परिस्थितियों में उससे ज्यादा सोचा और किया।
आज तक राम और कृष्ण को किसी ने इस देश का 'राष्ट्रपिता' नहीं कहा परन्तु सभाषचन्द्र बोस तथा गुरूकुल कांगड़ी ने (जो आर्य समाजियों का गढ़ था) ने उनको 'राष्ट्रपिता' कहा और वे 'राष्टपिता' मान लिए गये। 
वाल्मीकि इसलिए बहुत बड़े कवि माने जाते हैं क्योंकि उनके मन में अथाह का 
‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । 
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।" वह केवल मनुष्य के दुःख से दुःखी नहीं होते थे पशु-पक्षियों के दुःख से भी दुःखी हो जाते थे। प्रेमचन्द की भी मनुष्यता इसी कोटि की थी। जीवन में जो दलित, शोषित, उपेक्षित वर्ग था उसके प्रति प्रेमचन्द की करूणा बडी महान थी। प्रेमचन्द उसी के साथ थे। क्योंकि गीता भी यही कहती है धम का रक्षा कैसे होती है; गीता में कहीं नहीं लिखा है कि पूजा करो पाठ करो। गीता के प्रथम और तृतीय अध्याय में कृष्ण ने यही कहा है कि जहाँ-जहाँ अन्याय है उस अन्याय का विनाश करने के लिए और भले लोगों की रक्षा के लिए धर्म की स्थापना हेतु मैं अवतार लेता हूँ । यह बहुत उच्चकोटि का दर्शन है। 
- गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि यह तुम्हारे गुरू द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म हैं इनकों भी मारों क्योंकि जब सभा में द्रौपदी के साथ 'अन्याय' हो रहा था तब इन लोगों ने चुप्पी साधकर उस 'अन्याय' का समर्थ किया और अर्जुन ने उन लोगों को मारा भी । किन्तु किसी ने आज तक ये नहीं कहा कि अर्जुन हत्यारा है उसने अपने सगे-सम्बन्धियों को मारा, क्योंकि वह 'वध' ही उस अन्याय के प्रति विद्रोह था और यही उसकी सार्थकता और नियति थी। 
महाभारत में एकलव्य और कर्ण के साथ अन्याय हुआ। प्रेमचन्द इसी अन्याय के लिए आवाज उठाते थे। प्रगतिशीलता और कोई चीज नहीं कि आप लाल झण्डा उठाकर घूमें, प्रगतिशीलता यह है कि जहाँ-जहाँ अन्याय है, अत्याचार है, उसका विरोध आप करें। चाहे वह कोई भी कर रहा हो। माँ-बाप, दादा या गुरू कोई भी अन्याय कर रहा हो उसका विरोध होना चाहिए यही प्रगतिशीलता है। 
इसीलिए "द्विवेदी जी ने लिख दिया कि – सत्य के लिए वेद से भी नहीं डरना, गुरू से भी नहीं डरना और लोक से भी नहीं डरना।” 'प्रेमचन्द इसी मानवतावादी दर्शन के अनुयायी थे।' 



प्रज्ञा पाण्डेय 
बलिया (उत्तर प्रदेश)